ध्यान : करना या होना:

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अमूमन साधक यही कहते नजर आते है कि आज मैंने ध्यान किया मैंने आज इतने समय तक ध्यान किया या ध्यान में बैठा । लेकिन क्या किया जाने वाला वास्तव मै ध्यान है । या जो स्व तः स्फुरित हो सहज ना करते हुए हो उसे ध्यान की संज्ञा से विहित किया जाएगा । अध्यात्म का मूल मंत्र इस भित्तिका पर टिका है कि हम दृष्टा बने पूरी तरह से कर्ता भाव से मुक्त होकर । पतंजलि योग सूत्र में योग की को परिभाषा है जरा उस पर हम मनन करें --- चित्त वृत्ति निरोधस्य योगः । इसका क्या मतलब । चित्त वृत्ति के निरुद्ध होते ही योग घटित होगा ये कहना है पतंजलि मुनि का । योग हम करना नहीं है वह स्वत: घटित होने वाली क्रिया है जिसमें हमारा कोई योगदान नहीं । यदि कोई योगदान है तो सिर्फ उसके पूर्व चित्त के निरोध का । यानि हम अपने चित्त की समस्त वृत्तियां समेट लेना है । मन की गति बहिर्मुखी ना रहे उस अपने में समेट लो उसे समस्त कारणों से उपरामता दे दो । ऐसी स्थिति में उसके बाद जो घटित होगा वह होगा ध्यान । जिसमे हम होगे साक्षी , दृष्टा । और उस ध्यान की ही और प्रगाढ़ अवस्था समाधि घटित करती है । फिर ध्यान के लिए जरूरी नहीं कि हम बैठे है या कोई सांसारिक क्रिया संपादित कर रहे । वह तो बना ही रहेगा । क्योंकि चित्त एक बार निरुद्ध हुआ तो अपनी सहज अवस्था जिसे आप ध्यान कह सकते हो , छोड़ना ही नहीं चाहता । वहीं है ध्यान की सहज अवस्था जिसके लिए संत कबीर कहते है साधो सहज समाधि भली । और इसी अवस्था के लिए गुंसाई जी लिखते है शंकर सहज सरुप संभारा , लागि समाधि अखंड अपारा ।

- जयति अवधूतेश्वर

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Comments (1 )

KUMAR SANJAY

जहां तक मुझे समझ आया, ध्यान लगाया नहीं जा सकता यह स्वयं घटता है, तो साधक केवल मन को एकाग्र करने की कौशिश करता रहे ? ॐ नमः शिवाय 🙏

aadri team astrologer kundli

मन को भी एकाग्र नहीं किया जा सकता । धारणा के बिना ध्यान नही लगता कोई आलंबन चाहिए मन के ठहराव के लिए। वायु को स्थिर कर मन को ठहराया जाता है वो हठयोग हुआ। मन को धारणा पर लगाना राजयोग।.

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